Saturday, October 28, 2006

हरिवंश राय बच्चन: इलाहाबाद

हरिवंश राय बच्चन
भाग-१: क्या भूलूं क्या याद करूं
पहली पोस्ट: विवाद
दूसरी पोस्ट: क्या भूलूं क्या याद करूं

भाग-२: नीड़ का निर्माण फिर
तीसरी पोस्ट: तेजी जी से मिलन
चौथी पोस्ट: इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक
पांचवीं पोस्ट: आइरिस, और अंग्रेजी
छटी पोस्ट: इन्दिरा जी से मित्रता,
सातवीं पोस्ट: मांस, मदिरा से परहेज
आठवीं पोस्ट: पन्त जी और निराला जी
नवीं पोस्ट: नियम
भाग-३: बसेरे से दूर
यह पोस्ट: इलाहाबाद से दूर
अगली पोस्ट: भाग -४ दशद्वार से सोपान तक

बसेरे से दूर, बच्चन जी की आत्म कथा का तीसरा भाग है यह तब लिखी गयी जब वह इलाहाबाद से दूर चले गये। यह भाग के बारे में कुछ लोग विवाद करते हैं मेरे कई मित्र इलाहाबाद के पुराने बाशिन्दे रहे हैं। उनके पिताओं से कभी कभी मुलाकात होती है। एक बार जब मैंने इस भाग कि कुछ घटनाओं, खास कर तेजी जी के साथ घटित घटना, की बात की तो उनका कहना था कि यह सही तरह से वर्णित नहीं है और वास्तविकता कुछ और है। मैं नहीं जानता कि क्या सच है पर लगा कि इस बारे में कुछ विवाद अवश्य है।

इस भाग में बच्चन जी के इलाहाबाद से जुड़े खट्टे मीठे अनुभव हैं - ज्यादातर तो खट्टे ही हैं। यदि आप इलाहाबाद प्रेमी हैं, तो शायद यह भाग आपको न अच्छा लगे, पर एक जगह बच्चन जी इलाहाबाद के बारे में यह भी कहते हैं। ‘
इलाहाबाद भी क्या अजीबोगरीब शहर है । यह इसी शहर में सम्भव था कि एक तरु तो यहां ऐसी नई कविता लिखी जाय जिस पर योरोप और अमरीका को रश्क हो और दूसरी तरु यहां से एक ऐसी पत्रिका प्रकाशित हो जिसका आधुनिकता से कोई संबंध न हो - संपादकीय को छोडकर। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी "सरस्वती" को द्विवेदी युग से भी पीछे ले जाकर जिलाए जा रहे थे, आश्चर्य इस पर था।‘
तो दूसरी जगह यह भी कहते हैं,
‘इलाहाबाद की मिटटी में एक खसूसियत है – बाहर से आकर उस पर जमने वालों के लिये वह बहुत अनुकूल पडती है । इलाहाबाद में जितने जाने-माने, नामी-गिरामी लोग हैं, उनमें से ९९% आपको ऐसे मिलेंगे जो बाहर से आकर इलाहाबाद में बस गए, खासकर उसकी सिविल लाइन में - स्यूडो इलाहाबादी । और हां, एक बात और गौर करने के काबिल है कि इलाहाबाद का पौधा तभी पलुहाता है, जब वह इलाहाबाद छोड दे ।‘

इसमें कुछ तो सच है। नेहरू, सप्रू, काटजू, बैनर्जी वगैरह तो इलाहाबाद में बाहर से आये और फूले फले। नेहरू की सन्तानें और आगे तब बढ़ी जब वे इलाहाबाद से बाहर गयीं। यह बात हरिवंश राय बच्चन के पुत्र अमिताभ बच्चन पर भी लागू होती है - वे तभी फूले फले जब पहुंचे बौलीवुड।

यहां पर गौर करने की बात है कि ‘नीड़ का निर्माण फिर’ में बच्चन जी इलाहाबाद का जिक्र करते हुये कहा था कि,
‘इलाहाबाद बड़े विचित्र ढंग से बसा है, या बसा था। मैं आज से तीस बरस पहले के इलाहाबाद की बात कर रहा हूँ जिसे मैंने अपने लड़कपन से जाना था। मुख्य भाग था उसका दक्षिणी भाग-मुहल्लों, गली, कूचों का। उत्तर का भाग कटरा कहलाता था-दक्षिण से बिलकुल कटा, या जुड़ा तो लम्बे कम्पनी बाग से। इलाहाबाद के प्राचीन, मूल बाशिंदे इन्हीं दो भागों में बसे थे। कम्पनी बाग के पश्छिम का भाग सिविल लाइंस कहलाता था, जिसमें प्राय: अंग्रेज, ऐंग्लो-इंडियनस पारसी और कश्मीरी रहते थे। पूर्व का भाग जार्ज टाउन, जिसमें प्राय: बाहर से आए सम्भ्रांत उत्तर भारतीय लोग थे। सिविल लाइंस और जार्ज टाउन दोनों में मकान बंगले-नुमा थे, तो जार्ज टाउन में सिविल लाइंस की बनिस्बत अंग्रेजी या योरोपीय वातावरण कम था। सिविल लाइंस का प्रतिनिधि आप सर तेज बहादुर सप्रू को कह सकते थे तो जार्ज टाउन का डॉ. गंगानाथ झा को। पंडित मदन मोहन मालवीय मुहल्लों, गली, कूचों वाले ठेठ इलाहाबाद के प्रतिनिधि माने जा सकते थे। इलाहाबाद वालों को अपने बाप-दादों की पुश्तैनी जमीन से बड़ा लगाव है। ऐसे परिवार उँगलियों पर गिने जा सकते हैं जो अपनी समृद्धि में अपने मुहल्लों की जमीन छोड़कर सिविल लाइंस या जार्ज टाउन में जा बसे हों।‘

मेरे इलाहाबादी मित्र कहते हैं कि
'इलाहाबाद शहर अपने मैं अनूठा है - न ही किसी शहर ने देश को इतने प्रधान मन्त्री दिये, न ही साहित्यकार, न ही इतने सरकारी अफसर, न ही इतने वैज्ञनिक, और न ही न्यायविद। इससे सम्बन्धित लोग दुनिया में फैले हैं।'
वे लोग यह भी कहते हैं कि,
'जहां तक साहित्यकारों की बात है जब तक वे इलाहाबाद में रहे सरस्वती उनके साथ रहीं, जब उन्होने इलाहाबाद छोड़ा लक्षमी तो मिली, पर सरस्वती ने साथ छोड़ दिया। उन्हें प्रसिद्धि उस काम के लिये मिली जो उन्होने इलाहाबाद में किया - चाहें वे हरिवंश राय बच्चन हों या धर्मवीर भारती। हरिवंश राय बच्चन माने या न माने उन्होने अपनी सबसे अच्छी कृति (मधुशाला) उनके इलाहाबाद रहने के दौरान लिखी गयी। उन्हें जो भी प्रसिद्धि मिली वह उन कृतियों के लिये मिली, जो उन्होने इलाहाबाद में लिखी। 'सुमित्रा नन्दन पन्त, या महादेवी वर्मा, या राम कुमार वर्मा इस लिये लिख पाये क्योंकि वे इलाहाबाद में ही रहे।'
मैं साहित्य का ज्ञाता नहीं हूं। मैं नहीं कह सकता कि यह सच है कि नहीं और न ही कुछ टिप्पणी करने का सार्मथ्य रखता हूं - फिर भी कुछ सवाल मन में उठते हैं,
  • क्या इलाहाबाद की मिट्टी कुछ अलग है?
  • क्या इलाहाबाद वासी अपने शहर के लिये एहसान फरामोश हैं?
  • क्या कुछ हादसों पर किसी शहर को आंकना ठीक है?
  • क्या आने वाले समय में इलाहाबद शहर गुमनामी में खो जायगा?
मालुम नहीं - इलाहाबाद वासी या उसके एहसान फरामोशी ही जाने।

इस भाग में भी मुझे वह बात (बच्चन-पन्त विवाद) की चर्चा नहीं मिली, जिसके लिये मैंने बच्चन जी की जीवनी पढ़ना शुरु किया - शायद चौथे और अन्तिम भाग में हो।

1 comment:

  1. Anonymous3:07 pm

    किसी भी चीज़ को पनपने के लिए वहाँ की मिट्टी के संग संग सही वातावरण भी आवश्यक है।
    मिट्टी वही है पर वातावरण बदल चुका है। एक समय था जब दूूर दूर से लोग इलाहाबाद पढ़ने आते थे आज इलाहाबाद के लोग तक अपने बच्चों को बाहर पढ़ने भेज रहेे है।

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