Saturday, September 09, 2006

हरिवंश राय बच्चन - इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक

पहली पोस्ट: हरिवंश राय बच्चन – विवाद
दूसरी पोस्ट: हरिवंश राय बच्चन - क्या भूलूं क्या याद करूं
तीसरी पोस्ट: हरिवंश राय बच्चन – तेजी जी से मिलन
यह पोस्ट: हरिवंश राय बच्चन - इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के अध्यापक

बीसवीं शताब्दी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय Oxford of East के नाम से जाना जाता था - भारतवर्ष का सबसे अच्छा विश्‍वविद्यालय। इस विश्‍वविद्यालय एक फिलोसफी विभाग के अध्‍यापक के बारे में बच्चन जी ने ‘क्या भूलूं क्‍या याद करूं’ में लिखा था। इसका जिक्र भी मैंने इस विषय की दूसरी पोस्ट पर किया है। बच्चन जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिर से अंग्रेजी में पढ़ाई पूरी करने गये। 'नीड़ के निर्माण फिर' में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पुनः पढ़ाई वा उन्हें कैसे वहां नौकरी मिली की कथा बताते हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के दो प्रसिद्ध अध्यापक अमर नाथ झा और एम.सी. देव के बारे में बताते हैं।
‘पंडित अमरनाथ झा अंग्रेजी-साहित्‍य का इतिहास और शेक्सपियर पढ़ाते थे। साहित्य के इतिहास पर उनका एक व्याख्यान प्रति सप्ताह होता था और उसमें बी.ए. कें लड़के भी आकर बैठ सकते थे-विभाग के बीचोंबीच वाले सबसे बड़े हाल में, जिसमें अपराहन में ^ला’ के क्लास होते थे। शेक्सपियर वाला क्लास वे अपने कमरे में लेते थे। हाजिरी लेने में वे अपना वक्त नहीं खराब करते थे । लड़के उनके क्लास में पहुंचे, उन्होंने एक नजर सब पर दौड़ाई, रजिस्टर खोला और अनुपस्थित लड़कों के नाम के आगे बिन्दी धर दी। किसी प्रकार का नोट हाथ में लेकर पढ़ाते मैंने कभी न देखा था; प्रो.एस.सी. देब को भी यह कमाल हासिल था, पर दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर था। झा साहब जब किसी विषय पर व्याख्यान देने लगते तो महसूस होता थ कि आप एक ऐसी नाव में बैठे हैं जिसकी पतवार ठीक दिशा में लगी हुई है और जिसका खेवनहार नाव को समगति से खेता आपको ४५ मिनट के निश्चित घाट पर उतार देगा। देब साहब की नाव में न पतवार होती थी न डांड़ । वह शब्दों के तूफान में डगमग डोलती कभी कभी दाएं-बाएं, कभी आगे, और कभी पीछे भी खिंचती, किसी भी जगह जाकर टकरा सकती थी।‘

एक साल गर्मियों में बच्‍चन जी तेजी जी के साथ झा साहब के साथ मसूरी में रहे। उसके अनुभव पर बच‍चन जी कहते हैं कि,
‘झा साहब के साथ कोई कितने ही दिन रहे, उनसे निकटता का अनुभव नहीं कर सकता था। वे अपने भीतर कहीं बहुत एकाकी, स्वकेन्द्रित और स्वयं-पर्याप्त थे। वे यह तो चाहते थे कि उनके आस-पास लोग रहें पर अपने निकट वे किसी को न आने देते थे। झा साहब में बहुत गुण थे, पर वे अच्छे मेजबान नहीं थे। धर्मशाला और घर रहने में कुछ अन्तर का अनुभव तो होना चाहिए। उनके घर में सब-कुछ ठंडा-ठंडा सा था ! हृदय की गर्माहट की प्रतीति कहीं नहीं होती थी।

कैसे अनासक्त भाव से रहता था वह शख्स! सुबह से शाम तक सारे काम बिना किसी घबराहट के, थकावट के, बिना किसी शिकवा-शिकायत के, कर्तव्य की गरिमा से करते जाना रोज-ब-रोज, माह-ब-माह, साल-ब-साल। इतना जब्त करने वाला, इतना अपने को जाब्ते में रखने वाला मैंने दूसरा आदमी नहीं जाना।‘

अगला सप्ताह हिन्दी सप्ताह है - १४ सितम्बर हिन्दी दिवस है तब बात करेंगे हरिवंश राय बच्चन के अंग्रेजी भाषा के विचारों के बारे में।

अन्य चिट्ठों पर क्या नया है इसे आप दाहिने तरफ साईड बार में, या नीचे देख सकते हैं।

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